शनिवार, 13 जून 2009

मेरी जान आज का ग़म कर ,कि जाने कातिबे -वक्त ने
किसी अपने कल में भी भूल कर ,कहीं लिख राखी हों मसर्रतें .

फैज़

रविवार, 17 मई 2009

ग़ज़ल

कबसे तेरे ख्वाब मेरी आंखों में पलते हैं ,
दूर -दूर रहकर भी हम -तुम साथ तो चलते हैं

हाथ में हाथ दिए बैठे हैं, देखो दोनों सबसे दूर ,
हैं अंजान के जाडों में दिन जल्दी ढलते है

अपना कोई घर ,कमरा या पेड़ नहीं ,
आवारा पंछी रोजाना ठौर बदलते हैं

आज अभी तो खुल के जी लें ,कल की कौन कहे
सड़क -सड़क पर रोज़ मौत के दस्ते चलते हैं

ये हों, वो हों कोई भी हों हमको क्या करना
शीश बदलने से क्या तख्तो -ताज बदलते
है ।

सीमा

गुरुवार, 26 मार्च 2009

मित्रों ,
डॉक्टर बशीर बद्र का नाम हर उस इन्सान के लिए जाना पहचाना है जिसे शायरी में ज़रा भी दिलचस्पी है .बद्र साहब के कुछ शेर तो इतने लोकप्रिय हैं की आम लोग भी उनका बातों में प्रयोग करते है जैसे -
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो ,
जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाए
और
मुसाफिर हैं हम भी ,मुसाफिर हो तुम भी ,
किसी मोड़ पर फ़िर मुलाक़ात होगी

इसी तरह के कई शेर है .हमें गर्व है की बद्र साहब हमारे शहर की शान हैं .यूँ तो मुझे उनकी कई गज़लें पसंद हैं पर सबका यहाँ होना मुमकिन नही पर मेरी पसंदीदा ग़ज़लों में से एक आपकी खिदमत में पेश है -

अब किसे चाहें किसे ढूंढा करें ,
वो भी आखिर मिल गया अब क्या करें

हलकी -हलकी बारिशें होती रहें ,
हम भी फूलों की तरह भीगा करें

दिल, मोहब्बत ,दीन,दुनिया ,शायरी ,
हर दरीचे से तुझे देखा करें

आँख मूंदे उस गुलाबी धूप में ,
देर तक बैठे उसे सोचा करें

घर नया ,बर्तन नए ,कपड़े नए ,
इन पुराने कागजों का क्या करें

रविवार, 8 मार्च 2009

एक लम्हा जाते -जाते कान में ये कह गया
अब लौटेगा वो आंसू ,आंख से जो बह गया

कुछ तो माजी से मिले हैं और कुछ ताजे भी हैं
और भी एक ज़ख्म है जो भरते-भरते रह गया

गुनगुनाने के लिए छेड़ी जो मैंने एक ग़ज़ल
क्यूँ किसी की आंख से सारा समंदर बह गया

बुनियाद पक्की चाहिए ईमारत --बुलंद को
एक मकां जो ताश का था बस हवा से ढह गया

वक्त की इस धूप ने मुझको बनाया सख्त जाँ
चोट गहरी थी मगर मैं मुस्कुरा के सह गया

सीमा

गुरुवार, 5 मार्च 2009

यही हालात इब्तिदा से रहे
लोग हमसे खफा -खफा से रहे |

बेवफा तुम कभी थे लेकिन
ये भी सच है कि बेवफा से रहे |

इन चरागों में तेल ही कम था
क्यों गिला फ़िर हमें हवा से रहे |

उसके बन्दों को देख कर कहिये
हमको उम्मीद क्या खुदा से रहे

जिंदगी की शराब मांगते हो
हम को देखो के पी के प्यासे रहे |


जावेद जाँ निसार 'अख्तर '

शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

कुछ बाकी रहा छिपाने को
सब पता चल गया ज़माने को |

जिसको दिल से लगा के रक्खा है
,
वो तड़पता है दूर जाने को |

रोज़ रो -रो के थक गई ऑंखें ,
मिले मुझे भी कोई शाम खिलखिलाने को |

रात हो ,नींद हो और ऐसा हो ,
कोई
आए नही जगाने को |

खुशबु ही बस नहीं है ,इन कागजी फूलों में
वैसे अच्छे हैं ,गुलदान में सजाने को |

दिल तो दिल है ,कोई पहाड़ नहीं
एक खिलौना है टूट जाने को |

सीमा

शनिवार, 21 फ़रवरी 2009

आँख का आंसू समझ कर तुम भी मुझको भूल जाना
हैं हजारों लोग किसको याद रखता है ज़माना

इश्क का सौदा हमेशा आंसुओं के मोल होगा
लाख मुस्कानें लुटाओ बदले में आंसू है पाना

इस जहाँ से उस जहाँ तक कोई भी अपना नहीं
यूँ तो कहने को सभी से है हमारा दोस्ताना

हाँ नही होंगे तो क्या हमसे हजारों लोग होंगे
इस सराय- -फानी में होता रहेगा आना जाना

रत -दिन मेरे साथ रह कर वो समझा दर्दे दिल
मैंने भी समझा मुनासिब दर्द को हँस के छिपाना .

सीमा

शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2009

खवाब -बसेरा


इस वक्त तो यूँ लगता है अब कुछ भी नहीं है महताब , सूरज , अँधेरा सवेरा आँखों के दरीचों में किसी हुस्न की झलकन और दिल की पनाहों में किसी दर्द का डेरा मुमकिन है कोई वहम हो ,मुमकिन है सुना हो गलियों में किसी चाप का अक आखिरी फेरा शाखों में ख्यालों के घने पेड़ की शायद अब आके करेगा कोई खवाब बसेरा इक बैर, इक महर इक रब्त , रिश्ता तिरा कोई अपना, पराया कोई मेरा मन की ये सुनसान घडी सख्त बड़ी है लेकिन मेरे दिल ये तो फ़क़त एक घड़ी है हिम्मत करो जीने को अभी उमर पड़ी है .

फैज़ अहमद 'फैज़'

मंगलवार, 17 फ़रवरी 2009

दायरा

रोज़ बढ़ता हूँ जहाँ से आगे
फ़िर वहीँ लौट के जाता हूँ
बारह तोड़ चुका हूँ जिनको
इन्ही दीवारों से टकराता हूँ
रोज़ बसते हैं कई शहर नए
रोज़ धरती में समा जाते हैं
ज़लज़लों में थी ज़रा सी गिरह
वो भी अब रोज़ ही जाते हैं


जिस्म से रूह तलक,रेत ही रेत
कहीं धूप, साया , सराब
कितने अरमान हैं किस सेहरा में
कौन रखता है मजारों का हिसाब
नफ्ज़ बुझती भी,भड़कती भी है
दिल का मामूल है घबराना भी
रात,अंधेरे ने अंधेरे से कहा
इक आदत है जिए जाना भी

'कैफी' आज़मी

रविवार, 15 फ़रवरी 2009

रात यूँ दिल में तेरी खोई हुई याद आई
जैसे वीराने में चुपके से बहार जाए
जैसे सहराओं में हौले से चले बाद- - नसीम
जैसे बीमार को बेवजह करार जाए

फैज़
वो तो जाँ लेके भी वैसा ही सुबुक -नाम रहा
इश्क के बाब में सब जुर्म हमारे निकले
परवीन शाकिर