सबसे पहले तो आप सब से माफ़ी चाहती हूँ के बहुत दिनों से कोई पोस्ट नहीं डाली और उसके बाद आप सभी का बहुत बहुत शुक्रिया के आप लोग इस दिल की महफ़िल में आये और अपने बेशकीमती कमेंट्स से मेरी हौसला अफजाई की .मुआफिनामे के तौर पर एक ताज़ा ग़ज़ल पेश है .
शाम लौटी है थके हाल परिंदों की तरह .
निचली बस्ती के नाकाम बाशिंदों की तरह .
काट के पर मेरे ,हाय उस ज़ालिम ने कहा .
ख़ुदा करे कि उड़ें आप परिंदों की तरह .
ना काफी रही बारिश ,हैं सूखी हुई फसलें .
बादल भी अबके आये सरकारी कारिंदों की तरह .
ये बेलगाम हाकिम ,ये लुटेरे रहनुमा ?
चूसेंगे हमको कब तक ,ये लोग दरिंदों की तरह .
मयखाना मुबारक तुम्हें ,साकी भी तुम्हीं को
हमको तो नशा दे गई है ,ज़िन्दगी रिन्दों की तरह .
तू ख़ुदा है ? तो ख़ुदा आज उतर जन्नत से
ज़मीं पे रह के दिखा तू जरा बन्दों की तरह