शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

कुछ बाकी रहा छिपाने को
सब पता चल गया ज़माने को |

जिसको दिल से लगा के रक्खा है
,
वो तड़पता है दूर जाने को |

रोज़ रो -रो के थक गई ऑंखें ,
मिले मुझे भी कोई शाम खिलखिलाने को |

रात हो ,नींद हो और ऐसा हो ,
कोई
आए नही जगाने को |

खुशबु ही बस नहीं है ,इन कागजी फूलों में
वैसे अच्छे हैं ,गुलदान में सजाने को |

दिल तो दिल है ,कोई पहाड़ नहीं
एक खिलौना है टूट जाने को |

सीमा

शनिवार, 21 फ़रवरी 2009

आँख का आंसू समझ कर तुम भी मुझको भूल जाना
हैं हजारों लोग किसको याद रखता है ज़माना

इश्क का सौदा हमेशा आंसुओं के मोल होगा
लाख मुस्कानें लुटाओ बदले में आंसू है पाना

इस जहाँ से उस जहाँ तक कोई भी अपना नहीं
यूँ तो कहने को सभी से है हमारा दोस्ताना

हाँ नही होंगे तो क्या हमसे हजारों लोग होंगे
इस सराय- -फानी में होता रहेगा आना जाना

रत -दिन मेरे साथ रह कर वो समझा दर्दे दिल
मैंने भी समझा मुनासिब दर्द को हँस के छिपाना .

सीमा

शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2009

खवाब -बसेरा


इस वक्त तो यूँ लगता है अब कुछ भी नहीं है महताब , सूरज , अँधेरा सवेरा आँखों के दरीचों में किसी हुस्न की झलकन और दिल की पनाहों में किसी दर्द का डेरा मुमकिन है कोई वहम हो ,मुमकिन है सुना हो गलियों में किसी चाप का अक आखिरी फेरा शाखों में ख्यालों के घने पेड़ की शायद अब आके करेगा कोई खवाब बसेरा इक बैर, इक महर इक रब्त , रिश्ता तिरा कोई अपना, पराया कोई मेरा मन की ये सुनसान घडी सख्त बड़ी है लेकिन मेरे दिल ये तो फ़क़त एक घड़ी है हिम्मत करो जीने को अभी उमर पड़ी है .

फैज़ अहमद 'फैज़'

मंगलवार, 17 फ़रवरी 2009

दायरा

रोज़ बढ़ता हूँ जहाँ से आगे
फ़िर वहीँ लौट के जाता हूँ
बारह तोड़ चुका हूँ जिनको
इन्ही दीवारों से टकराता हूँ
रोज़ बसते हैं कई शहर नए
रोज़ धरती में समा जाते हैं
ज़लज़लों में थी ज़रा सी गिरह
वो भी अब रोज़ ही जाते हैं


जिस्म से रूह तलक,रेत ही रेत
कहीं धूप, साया , सराब
कितने अरमान हैं किस सेहरा में
कौन रखता है मजारों का हिसाब
नफ्ज़ बुझती भी,भड़कती भी है
दिल का मामूल है घबराना भी
रात,अंधेरे ने अंधेरे से कहा
इक आदत है जिए जाना भी

'कैफी' आज़मी

रविवार, 15 फ़रवरी 2009

रात यूँ दिल में तेरी खोई हुई याद आई
जैसे वीराने में चुपके से बहार जाए
जैसे सहराओं में हौले से चले बाद- - नसीम
जैसे बीमार को बेवजह करार जाए

फैज़
वो तो जाँ लेके भी वैसा ही सुबुक -नाम रहा
इश्क के बाब में सब जुर्म हमारे निकले
परवीन शाकिर