मित्रों ,
डॉक्टर बशीर बद्र का नाम हर उस इन्सान के लिए जाना पहचाना है जिसे शायरी में ज़रा भी दिलचस्पी है .बद्र साहब के कुछ शेर तो इतने लोकप्रिय हैं की आम लोग भी उनका बातों में प्रयोग करते है जैसे -
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो ,
न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाए ।
और
मुसाफिर हैं हम भी ,मुसाफिर हो तुम भी ,
किसी मोड़ पर फ़िर मुलाक़ात होगी ।
इसी तरह के कई शेर है .हमें गर्व है की बद्र साहब हमारे शहर की शान हैं .यूँ तो मुझे उनकी कई गज़लें पसंद हैं पर सबका यहाँ होना मुमकिन नही पर मेरी पसंदीदा ग़ज़लों में से एक आपकी खिदमत में पेश है -
अब किसे चाहें किसे ढूंढा करें ,
वो भी आखिर मिल गया अब क्या करें ।
हलकी -हलकी बारिशें होती रहें ,
हम भी फूलों की तरह भीगा करें ।
दिल, मोहब्बत ,दीन,दुनिया ,शायरी ,
हर दरीचे से तुझे देखा करें ।
आँख मूंदे उस गुलाबी धूप में ,
देर तक बैठे उसे सोचा करें ।
घर नया ,बर्तन नए ,कपड़े नए ,
इन पुराने कागजों का क्या करें ।
गुरुवार, 26 मार्च 2009
रविवार, 8 मार्च 2009
एक लम्हा जाते -जाते कान में ये कह गया
अब न लौटेगा वो आंसू ,आंख से जो बह गया ।
कुछ तो माजी से मिले हैं और कुछ ताजे भी हैं
और भी एक ज़ख्म है जो भरते-भरते रह गया ।
गुनगुनाने के लिए छेड़ी जो मैंने एक ग़ज़ल
क्यूँ किसी की आंख से सारा समंदर बह गया ।
बुनियाद पक्की चाहिए ईमारत -ऐ-बुलंद को
एक मकां जो ताश का था बस हवा से ढह गया ।
वक्त की इस धूप ने मुझको बनाया सख्त जाँ
चोट गहरी थी मगर मैं मुस्कुरा के सह गया ।
सीमा
अब न लौटेगा वो आंसू ,आंख से जो बह गया ।
कुछ तो माजी से मिले हैं और कुछ ताजे भी हैं
और भी एक ज़ख्म है जो भरते-भरते रह गया ।
गुनगुनाने के लिए छेड़ी जो मैंने एक ग़ज़ल
क्यूँ किसी की आंख से सारा समंदर बह गया ।
बुनियाद पक्की चाहिए ईमारत -ऐ-बुलंद को
एक मकां जो ताश का था बस हवा से ढह गया ।
वक्त की इस धूप ने मुझको बनाया सख्त जाँ
चोट गहरी थी मगर मैं मुस्कुरा के सह गया ।
सीमा
गुरुवार, 5 मार्च 2009
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