बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

दोस्तों ,
सबसे पहले तो आप सब से माफ़ी चाहती हूँ के बहुत दिनों से कोई पोस्ट नहीं डाली और उसके बाद आप सभी का बहुत बहुत शुक्रिया के आप लोग इस दिल की महफ़िल में आये और अपने बेशकीमती कमेंट्स से मेरी हौसला अफजाई की .मुआफिनामे के तौर पर एक ताज़ा ग़ज़ल पेश है .

शाम लौटी है थके हाल परिंदों की तरह .
निचली बस्ती के नाकाम बाशिंदों की तरह .

काट के पर मेरे ,हाय उस ज़ालिम ने कहा .
ख़ुदा करे कि उड़ें आप परिंदों की तरह .

ना काफी रही बारिश ,हैं सूखी हुई फसलें .
बादल भी अबके आये सरकारी कारिंदों की तरह .

ये बेलगाम हाकिम ,ये लुटेरे रहनुमा ?
चूसेंगे हमको कब तक ,ये लोग दरिंदों की तरह .

मयखाना मुबारक तुम्हें ,साकी भी तुम्हीं को
हमको तो नशा दे गई है ,ज़िन्दगी रिन्दों की तरह .

तू ख़ुदा है ? तो ख़ुदा आज उतर जन्नत से
ज़मीं पे रह के दिखा तू जरा बन्दों की तरह

शनिवार, 2 जनवरी 2010

दोस्तों ,
पहले तो आप सभी को नए साल की बहुत- बहुत मुबारकबाद .
बहुत दिनों से दिल की महफ़िल में आना नहीं हुआ ,दरअसल हम जब दुनियावी परेशानियों में परेशान रहते है तो दिल की महफ़िल आबाद नहीं हो पाती है .इस नए साल में कोशिश रहेगी की आप सभी से लगातार मुलाक़ात होती रहे .इसी सिलसिले में एक ताज़ा ग़ज़ल पेश है .अपने कमेन्ट जरूर दें और कमियों को भी बताएं ताकि शायरी में और निखर सके



मेरा नहीं हुआ वो ,ये ग़म नहीं है मुझको
अफ़सोस ये के अब वो ,किसी का ना हो सकेगा

सब रंज ग़म भुलाकर ,उसको गले लगाकर
रोया हूँ आज जितना ,कोई और रो सकेगा ?

जाने कितने ग़म मिले हैं ,मुझको हंसी के बदले
मैं क्या करूँ के मुझसे रोना ना हो सकेगा

मैली ही क्यों करें अब ,चादर कबीर की हम
जब जानते हैं हमसे ,धोना ना हो सकेगा

पाया है जबसे तुझको ,तुझमें ही खो गया हूँ
अब और कुछ भी पाना ,खोना ना हो सकेगा

सीमा

शनिवार, 13 जून 2009

मेरी जान आज का ग़म कर ,कि जाने कातिबे -वक्त ने
किसी अपने कल में भी भूल कर ,कहीं लिख राखी हों मसर्रतें .

फैज़

रविवार, 17 मई 2009

ग़ज़ल

कबसे तेरे ख्वाब मेरी आंखों में पलते हैं ,
दूर -दूर रहकर भी हम -तुम साथ तो चलते हैं

हाथ में हाथ दिए बैठे हैं, देखो दोनों सबसे दूर ,
हैं अंजान के जाडों में दिन जल्दी ढलते है

अपना कोई घर ,कमरा या पेड़ नहीं ,
आवारा पंछी रोजाना ठौर बदलते हैं

आज अभी तो खुल के जी लें ,कल की कौन कहे
सड़क -सड़क पर रोज़ मौत के दस्ते चलते हैं

ये हों, वो हों कोई भी हों हमको क्या करना
शीश बदलने से क्या तख्तो -ताज बदलते
है ।

सीमा

गुरुवार, 26 मार्च 2009

मित्रों ,
डॉक्टर बशीर बद्र का नाम हर उस इन्सान के लिए जाना पहचाना है जिसे शायरी में ज़रा भी दिलचस्पी है .बद्र साहब के कुछ शेर तो इतने लोकप्रिय हैं की आम लोग भी उनका बातों में प्रयोग करते है जैसे -
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो ,
जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाए
और
मुसाफिर हैं हम भी ,मुसाफिर हो तुम भी ,
किसी मोड़ पर फ़िर मुलाक़ात होगी

इसी तरह के कई शेर है .हमें गर्व है की बद्र साहब हमारे शहर की शान हैं .यूँ तो मुझे उनकी कई गज़लें पसंद हैं पर सबका यहाँ होना मुमकिन नही पर मेरी पसंदीदा ग़ज़लों में से एक आपकी खिदमत में पेश है -

अब किसे चाहें किसे ढूंढा करें ,
वो भी आखिर मिल गया अब क्या करें

हलकी -हलकी बारिशें होती रहें ,
हम भी फूलों की तरह भीगा करें

दिल, मोहब्बत ,दीन,दुनिया ,शायरी ,
हर दरीचे से तुझे देखा करें

आँख मूंदे उस गुलाबी धूप में ,
देर तक बैठे उसे सोचा करें

घर नया ,बर्तन नए ,कपड़े नए ,
इन पुराने कागजों का क्या करें

रविवार, 8 मार्च 2009

एक लम्हा जाते -जाते कान में ये कह गया
अब लौटेगा वो आंसू ,आंख से जो बह गया

कुछ तो माजी से मिले हैं और कुछ ताजे भी हैं
और भी एक ज़ख्म है जो भरते-भरते रह गया

गुनगुनाने के लिए छेड़ी जो मैंने एक ग़ज़ल
क्यूँ किसी की आंख से सारा समंदर बह गया

बुनियाद पक्की चाहिए ईमारत --बुलंद को
एक मकां जो ताश का था बस हवा से ढह गया

वक्त की इस धूप ने मुझको बनाया सख्त जाँ
चोट गहरी थी मगर मैं मुस्कुरा के सह गया

सीमा

गुरुवार, 5 मार्च 2009

यही हालात इब्तिदा से रहे
लोग हमसे खफा -खफा से रहे |

बेवफा तुम कभी थे लेकिन
ये भी सच है कि बेवफा से रहे |

इन चरागों में तेल ही कम था
क्यों गिला फ़िर हमें हवा से रहे |

उसके बन्दों को देख कर कहिये
हमको उम्मीद क्या खुदा से रहे

जिंदगी की शराब मांगते हो
हम को देखो के पी के प्यासे रहे |


जावेद जाँ निसार 'अख्तर '