मंगलवार, 17 फ़रवरी 2009

दायरा

रोज़ बढ़ता हूँ जहाँ से आगे
फ़िर वहीँ लौट के जाता हूँ
बारह तोड़ चुका हूँ जिनको
इन्ही दीवारों से टकराता हूँ
रोज़ बसते हैं कई शहर नए
रोज़ धरती में समा जाते हैं
ज़लज़लों में थी ज़रा सी गिरह
वो भी अब रोज़ ही जाते हैं


जिस्म से रूह तलक,रेत ही रेत
कहीं धूप, साया , सराब
कितने अरमान हैं किस सेहरा में
कौन रखता है मजारों का हिसाब
नफ्ज़ बुझती भी,भड़कती भी है
दिल का मामूल है घबराना भी
रात,अंधेरे ने अंधेरे से कहा
इक आदत है जिए जाना भी

'कैफी' आज़मी

2 टिप्‍पणियां:

  1. I am speechless after reading this ..

    kuch kahne ke liye shabd hi nahi hai ..

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  2. शब्दो के संतुलन और शेर की मादकता को पढ़कर यही कह सकता हू कि मेरे पास कहने के लिए शब्द नही है । लिखते रहिए आभार

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